Monday, January 13, 2020

दर्द से कांप बेचैन हो छटपटा रही हूं,
औरत हूँ ! ममता,दया,संयम की ताक़ीद तले कब तक सिसकूँ
मासूम कलियों को मसलते देख कब तक तड़पहुँ।
बस !!बहुत हुआ मानवता को शर्मसार करता यह पाशविक खेल,
समय आ गया अब,
बनना होगा दुर्गा,झांसी औ देनी होगी भीषण टनकार!!
रुदन नहीं अब और,
नहीं चुप हो शमा जलाने का
झकझोरना है आगे बढ़
सोई न्याय ऊर्जा को,
भौतिकता तले दबी इंसानियत को।
माँ भारती की सौगंध है हमें ,
आ अब हुंकार भरें,
छोड़ पीछे हिंदू-मुस्लिम
मंदिर-मस्जिद
स्त्री -पुरुष के भेद को।
वरना निरुत्तर होंगे
तार-तार कर बची संस्कृति पर
घिनोना मुखोटा ओढ़े मूल्यों पर
मृत हुई मानवता पर।
बस!! बहुत हुआ यह नँगा नाच।
निर्भया,प्रियंका की चीखों तले
अब हुँकार भरों।
उठो अब हुंकार भरो।
शमा खान

Sunday, November 5, 2017

अब्बा
अब्बा तुम तो झूठे हो
कहते हो आँखों का नूर
पर रखते हो हर्फ़ से दूर
मैंने सुना है कुरआन में ख़ुदा कहता है
पढो ख़ुदा के नाम पे
ना फ़र्क वहां औरत मर्द में
अमीर ग़रीब में
हिन्दू मुस्लिम में
फिर क्यूँ अब्बा तू
  हिज़ाब पहना मुझे
बंद कर देते हो खिड़कियाँ
अब्बा तुम तो झूठे हो
शर्म ढूंढते हो कपड़ों में
आंखों में क्या कभी झाँक पाए हो?
मजहब शिर्क की बात करते हो
कभी खून की रंगत बदल पाये हो?
भाई को सब है छूट
हिदायतों की अम्बार
मुझ पर ही लगाये हो
अब्बा तुम तो झूठे हो।
कहते हो मुझे हूर
दामन में रश्क छुपाये हो
जब अपनों में ही नहीं महफूज़ मैं
किससे मुझे बचाये हो
कितना समेटूं
कितना सिमंटू
अब खुल जाने दो अब्बा
सांसो को ज़हन में
सपनो को आकाश में
जिंदगी को धरातल पर
Dr.shama khan
हाथों की बढ़ती झुर्रियाँ धड़कने बढा देती हैं
गुजर रहा है वक्त किस तेजी से चेता देती है।
ना आया अभी वह हुनर
तराशे हों जिसमें हर हर्फ़
ना पाया अभी वह अहसास
जज़्ब हो जिसमें हर तासीर।
हाथों की बढ़ती झुर्रियां
बढा देती है धड़कनें।
मखमली,कोमल चमकते हाथ,
                 ख़्वाबों को बुनते से लगते हैं
                  अल्हड़ मस्ती से
             नज़ाकत की मीठी डली से।
           पर धीरे धीरे आती झुर्रियाँ
           जैसे आभ की हों लकीरें
            तपन में निखरी
             अनुभव से पगी
             जिंदगी का सबब बनती जाती हैं
               ये झुर्रियाँ
अपनी दोस्त सी
दर्द पीड़ा की साक्षी
आस ख़ुशी की सारथि
ये झुर्रियाँ
उभार ले ढलती सी
कितना कुछ कह जाती हैं
ज़ुबाँ जिसे ना कहे
आँख जिसे छुपाये
धड़कनों की लय में ढलती जाती हैं
ये झुर्रियाँ
ये बुनती बनती
गुनती गिनती
झुर्रियाँ
Dr.shama khan
Ajmer
पीछे के गलियारे की कोई सरसराहट
दबे पांव आ खटकाती जब
भीतर की दरारें कहीं धीरे से चटकती
कहीं स्याह हो परते सीलन से हटती
कहीं रिश्तों के रोगन में छिपी
उधड़ पड़ती है किसी कोने से
सूखने का जतन करती
हथेलिया की आहत लकीरें
चेहरे को पढ़ती
रौंद कर सृजन की कहानी
               पर अगले ही पल
                नूर की आभ से छिटक
                बदल लेती है दिशा
            सरसराहट अपनी
           नये रंग सपने की चमक
         दरारों सीलन को भरती
         सृजन को रचती।